माटी तिहार –
बस्तर के आदिवासी प्रतिवर्ष चैत्र मास मे मिट्टी के वास्तविक स्वरुप की पूजा करते हैं। इसे माटी तिहार कहा जाता है। माटी देवगुडी के परिसर मे कुएं की तरह एक छोटा-सा गड्ढा खोदकर उसमें सियासी रस्सी से बंधी बीजधाम मिट्टी को अर्पित किया जाता है और प्रसाद के रूप में बीज धान लिया जाता है। इस पर्व को बीजपुटनी भी कहते हैं।
चरू जातरा –
इस पर्व में आदिवासी अपनी कृषि भूमि की पूजा करते हैं। इस पर्व में महिलाएँ सम्मिलित नहीं होती। पुरुष वर्ग मुर्गा, बकरा, कबूतर, हांसा आदि की बलि देते हैं।
दियाारी विहार-
इसमें उस स्थान की पूजा की जाती है, जिसमें चरवाहा पशु-धन को दोपहर में विश्राम करवाते हैं।
लक्ष्मी जगार-
इस पर्व में आदिवासी धान की बाली को खेत से लाते हैं, जिसे वे कन्या का प्रतिरुप मानते हैं। धान की बाली को जगार घर या दूल्हा घर में बड़े ही धूमधाम से लाते हैं। इस प्रकार लक्ष्मी का प्रतीक बाली और विष्णु का प्रतीक जगार घर में स्थापित नारियल का विवाह होता है।
अमूंस विहार –
यह पर्व प्रतिवर्ष हरेली अमावस्या को मनाया जाता है। इस त्यौहार का मुख्य कारण पशु चिकित्सा के प्रति गहरी लगाव है। इसमें पशु औषधियों की पूजा-अर्चना की जाती है। इसमें विशेष रूप से ‘रसना और ‘शतावरी’ पौधों को विशेष महत्व दिया जाता है।
नवाखानी –
यह पर्व प्रतिवर्ष भादो माह में शुक्ल पक्ष से पूर्णिमा तक परम्परानुसार गाँव-गाँव में मनाया जाता है। खेत की नई फसल का नया अन्न ग्रहण करने से पूर्व ग्राम देवी देवताओं व कुल देवियों की पूजा-अर्चना कर नया धान चढ़ाया जाता है। नवाखनी के बाद ही आदिवासी नयी फसल को उपयोग में लाते हैं।
गाँचा पर्व –
यह पर्व विशेष रूप से जगदलपुर में आषाढ़ माह में मनाया जाता है। इस पर्व की पृष्ठभूमि में काकतीय नरेश की एक तीर्थयात्रा है। इस पर्व में ग्रामवासी जगदलपुर में आकर श्री जगन्नाथ मंदिर की मूर्तियों को सम्मानपूर्वक रथ में स्थापित करते हैं और इस रथ को चलाते हैं। नौ दिनों तक रथ में रखी मूर्तियाँ दसवें दिन मंदिर में जब लौटती हैं, उस दिन आदिवासी विशेष रूप से ‘तुमकिया’ चलाते हैं।
गोबर बोहरानी –
प्रतिवर्ष चैत्र मास में दक्षिण बस्तर के छिन्दगढ़ विकासखण्ड के कुछ ग्रामों में यह पर्व 10 दिनों तक चलता है। इसमें ग्रामवासी ग्राम से लगे मैदान में ग्राम देवी की स्थापना करते हैं और तदूपरांत शस्त्र की पूजा की जाती है और उसके बाद आखेट के लिए जंगल जाते हैं।
दोपहर शिकारी अपने घर लौटकर भोजन ग्रहण करने के बाद पुनः मैदान में एकत्रित होकर नृत्य संगीत में मदमस्त रहते हैं। मैदान में ही एक विशेष गड्डा बना होता है, जिसमें प्रतिदिन लोग थोड़ा-थोड़ा गोबर लाकर डालते रहते हैं। दसवें दिन पर्व के समापन दिवस के अवसर पर समस्त ग्रामीण गायन करते हुए एक-दूसरे पर गोबर छिड़कते हैं, अपशब्द उच्चारण करते हैं और अंत में थोड़ा-सा गोबर उठाकर समस्त ग्रामवासी अपने खेतो में डालते हैं।
छेरछेरा-
फसल काटने के बाद यह पूर्व बस्तर सहित छत्तीसगढ़ व ओडिशा के अन्य हिस्सों में भी मनाया जाता है। यह प्रति वर्ष पूस माह में प्रारंभ होता है। छोटे बच्चों की टोली लेकर लोक कलाकार इस पर्व को विशेष रुप से उन्मुक्त होकर मनाते हैं। नाचने-गाने वालों को प्रत्येक घर से प्रसन्नतापूर्वक धान, चावल या नकद राशि प्राप्त होती है। जिसके बाद में वनभोज के लिए उपयोग में लाया जाता है। इस पर्व मे नर्तक को नकटा और नर्तकी को नकटी कहा जाता है।
बाली बरल
यह पर्व हलबा एवं भतरा प्रजाति में विशेष लोकप्रिय है। यह पर्व लगातार तीन माह तक मनाया जाता है। यह पर्व भीमादेव को समर्पित है। यह भीमादेव गुड़ी परिसर में ही मनाया जाता है। इस पर्व में अत्यधि क धन खर्च होता है, जिसे ग्रामवासी आपस मे संग्रहित करते हैं। इस पर्व को मनाने का निश्चित समय नहीं होता, यह सुविधानुसार मनाया जाता है। इस पर्व में रात-दिन नाच-गाना होता है। देव-दैवियाँ आदिवासियों में चढ़ती हैं. उनमें देव नाचते रहते हैं तो देवियाँ काँटो में झूलती रहती हैं। इस पर्व मे सेमल का एक विशेष स्तंभ स्थापित किया जाता है।
बासी विहार –
यह पर्व वर्ष में आने वाले सभी त्यौहारों का अंतिम पड़ाव होता है। इस दिन सारे लोग मौज-मस्ती करते हैं। इस पर्व में अधिकांश लोग नाच गायन करते रहते हैं। यह पर्व सामान्यता अप्रैल महीने में आता है।
भीमा जतरा –
जेठ माह मे भीमादेव का विवाह धरती माता से किया जाता है। यह उत्साह वर्षा की कामना में बड़े उत्साह से किया जाता है। विदित हो कि इस तरह से बस्तर के अन्य क्षेत्रों में वर्षा की कामना से मेंडका विवाह भी किया जाता है।
ककसाड़-
माटी तिहार के बाद बस्तर की अबुझमाड़िया कुटुम्ब प्रतिवर्ष गर्मी और बरसात के मध्य मनाते हैं। इस पर्व में दोरला व दंडामी माड़िया जनजाति के लोग भी शामिल होते हैं। इस पर्व में करसाड पर्व फसल के लिए गोत्र देव से पूजा-अर्चना की जाती है। यह पर्व मुख्य रूप से गोत्रीय देव-पूजन का पर्व अच्छी है। इस पर्व में एक नृत्य समारोह का भी आयोजन होता है। में
करमा-
यह पर्व उराँव, बिंझवार, बैगा व गोंड़ आदि जनजाति का महत्वपूर्ण पर्व है। इस पर्व का प्रमुख ध्येय जीवन में कर्म की असीम प्रधानता का है। वस्तुतः यह पर्व वन्य जीवन व कृषि संस्कृति में श्रम साधना को पर आधारित है। यह प्रायः धान रोपने व फसल कटाई के मध्य अवकाश काल का पर्व है जोकि भाद्र पूजा माह में मनाया जाता है। इस पर्व के अवसर पर प्रसिद्ध करमा नृत्य का आयोजन किया जाता है।
आमाखयी –
बस्तर संभाग में धुरवा एवं परजा जनजातियों द्वारा आयोजित होने वाला प्रमुख पर्व है। इस जनजाति के लोग यह पर्व आम फलने के समय अत्यंत ही उत्साह से मनाते हैं। वस्तुतः बस्तर का आम आदिवासी प्रकृति की ममतामयी गोद में ही बड़ा होता है। उसका सम्पूर्ण जीवन प्रकृति पर आधारित है। इन प्रकृति पुत्रों द्वारा अपने इस प्रदाता के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए ऐसे अवसरों को पर्व में परिवर्तित कर देते हैं।
सरहुल –
यह उराँव जनजाति का प्रमुख पर्व है। इस पर्व के अवसर पर सूर्यदेव व धरती माता का प्रतीकात्मक विवाह रचाया जाता है। अप्रैल माह के आरंभ में सम्पूर्ण जनजाति के लोग मुर्गे को सूर्य व काली मुर्गी को धरती माता का प्रतीक बनाकर इनका विवाह विधि-विधान के साथ कराते हैं। यह पर्व आदिन जनजाति के प्रकृति प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण है।