निर्धनता का अर्थ :-
सरल शब्दों में निर्धनता वह सामाजिक परिदृश्य है जिसमें समाज का एक अंग जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ होता है । तथापि, जब समाज का एक बड़ा भाग जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं से वंचित रहता है तथा केवल निर्वाह के स्तर पर जीवित रहता है तो समाज सामूहिक निर्धनता की स्थिति में होता है ।
विशेषज्ञों के एक वर्ग का मत है कि निर्धनता का अनुमान किसी व्यक्ति द्वारा कुछ न्यूनतम उपभोग मानक न प्राप्त कर पाने की स्थिति द्वारा लगाया जा सकता है । परन्तु अन्यों का मानना है कि आय की उस राशि पर सहमत होना कठिन है जो समय के एक बिन्दु पर न्यूनतम उपभोग सुनिश्चित करती है ।
योजना आयोग अनुसार 20 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति माह निजी उपभोग व्यय का 1960-61 की कीमतों के आधार पर न्यूनतम मानक है । परन्तु व्यक्तिगत शोधकर्त्ताओं जैसे बी.एस. मिन्हास और ए. वैद्यनाथन जिन्होंने ग्रामीण निर्धनता का अध्ययन किया ने निर्धनता रेखा को स्पष्ट किया, जबकि अन्यों पी.के. वरदान, बी. दाण्डेकर, आर. नाथ और एम.एस. आहलूवालिया ने अपनी ही निर्धनता रेखाएँ निर्धारित की हैं ।
तब तक, योजना आयोग ने छठी पंचवर्षीय योजना में (1980-85) निर्धनता की एक वैकल्पिक परिभाषा का अनुकरण किया है, ”न्यूनतम आवश्यकताओं और प्रभावी उपभोग माँग के प्रक्षेपणों पर कृत्यक बल ।”
(Task Force on Projections of Minimum Needs and Effective Consumption) अपने विवरण में कृत्यक बल ने ‘ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 2400 कैलोरी की खपत तथा शहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी की खपत के रूप में परिभाषित किया है ।”
इसके अतिरिक्त वर्ष 1974-80 की कीमतों के आधार पर सीमान्त बिन्दु ग्रामीण क्षेत्रों के लिये 76 रुपये तथा शहरों के लिये 88 रुपये हैं ।
यद्यपि निर्धनता का प्रयोग दो ढंगों द्वारा किया जाता है:
(1) पूर्ण निर्धनता,
(2) सापेक्ष निर्धनता ।
(1) पूर्ण निर्धनता (Absolute Poverty) :-
पूर्ण निर्धनता का अर्थ है देश की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुये निर्धनता का माप । इस सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियों ने निर्धनता की अनेक परिभाषाएं दी हैं परन्तु बहुत से देशों में निर्धनता की परिभाषा प्रति व्यक्ति कैलोरी की खपत तथा उपभोग के न्यूनतम स्तर के सन्दर्भ में की गई है । भारत में निर्धनता का अध्ययन इन दोनों सन्दर्भों में किया जायेगा ।
(2) सापेक्ष निर्धनता (Relative Poverty):-
सापेक्ष निर्धनता का अर्थ है अन्य देशों की तुलना में निर्धनता । संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) के अनुसार उन देशों को निर्धन माना जाता है जिनकी प्रति व्यक्ति आय 725 यू.एस. डॉलर प्रति वर्ष से कम है । उन देशों को अत्याधिक निर्धन माना जाता है जिनमें प्रति व्यक्ति कुल आय 100 यू.एस. डालर से कम है ।
भारत की प्रति व्यक्ति आय लगभग 330 यू.एस. डालर है, इसलिये इसे संसार के अति निर्धन देशों में गिना जाता है । मिस्त्र, श्रीलंका, पाकिस्तान आदि देशों की प्रति व्यक्ति आय भारत से अधिक है । संयुक्त प्रान्त अमेरिका की प्रति व्यक्ति आय 25,800 डालर है, जापान की 34,630 डॉलर, स्वीडन की 37,930 डालर है । अतः सापेक्ष रूप में भारत विश्व के निर्धनतम देशों में से एक है ।
(i) कैलोरी मापदण्ड (Calorie Criteria):
एक व्यक्ति द्वारा प्रतिदिन खाद्य पदार्थों से प्राप्त ऊर्जा का माप कैलोरी के रूप में किया जाता है । यह विचार सबसे पहले लार्ड बॉयड और (Lord Boyd Orr) दिश्व खाद्य तथा खेतीबाड़ी संगठन (FAO) के मुख्य निर्देशन ने प्रकट किया । उसके अनुसार किसी व्यक्ति द्वारा प्रतिदिन 2300 कैलोरी लेना आवश्यक है । इस न्यूनतम सीमा से कम कैलोरी लेने वाले को भूखमरी रेखा से नीचे समझा जायेगा ।
कॉलिन क्लार्क (Collin Clark) के अनुसार, एक किलो ग्राम मशीन द्वारा तैयार गेहू 3150 कैलोरी उपलब्ध करती है । इसलिये, एक व्यक्ति को एक वर्ष में 190 किलोग्राम खाद्य अनाज और दालों का अवश्य उपयोग करना चाहिये अन्यथा उसकी गिनती निर्धनों में होगी ।
रुत्थ और डान्डेकर (Ruth and Dandekar) का विचार है कि भारत में एक व्यक्ति के लिए प्रतिदिन न्यूनतम 2,250 कैलोरी लेना आवश्यक है । इस न्यूनतम आवश्यकता को पूरा करने के लिये किसी व्यक्ति के वर्ष 1960-61 की कीमतों पर ग्रामीण क्षेत्र में 324 रुपये प्रति वर्ष तथा शहरी क्षेत्र में 468 रुपये प्रति वर्ष अवश्य प्राप्त होने चाहियें ।
इस मापदण्ड अनुसार 22 करोड़ लोग अथवा भारतीय जनसंख्या का 42 प्रतिशत भाग निर्धनता रेखा से नीचे रहता था । योजना आयोग का मत था कि ग्रामीण क्षेत्र में किसी व्यक्ति को 2400 कैलोरी और शहरी क्षेत्र में 2100 कैलोरी प्रतिदिन अवश्य प्राप्त होनी चाहिये । इस धारणा के अनुसार वर्ष 1990-91 में ग्रामीण क्षेत्रों में 51% तथा शहरी क्षेत्रों में लोग निर्धनता रेखा से नीचे रह रहे थे ।
अतः भारत की जनसंख्या का 48% भाग निर्धनता रेखा से नीचे था । आर्थिक सर्वेक्षण 2000 अनुसार भारत में एक व्यक्ति प्रतिदिन 458 ग्राम अनाज और दालें अथवा 167 किलोग्राम प्रतिवर्ष प्राप्त करता है । कैलोरी मानदण्ड के अनुसार भारतीय जनसंख्या भूखमरी रेखा से नीचे जीवित है ।
(ii) न्यूनतम उपभोग मानदण्ड (Minimum Consumption Criteria):
योजना आयोग द्वारा वर्ष 1962 में निर्धनता रेखा निर्धारित करने के लिये एक विशेषज्ञ समिति ने न्यूनतम उपभोग मानदण्ड को अपनाया । इस समिति के अनुसार उन लोगों को निर्धनता रेखा से नीचे जीवन यापन करते माना जायेगा जिनका वर्ष 1960-61 की कीमतों पर उपभोग व्यय 20 रुपये प्रति मास से कम है ।
वर्ष 1968-69 में 40 रुपये प्रति माह से कम उपभोग व्यय को निर्धनता रेखा से नीचे माना गया । उपरोक्त मानदण्ड के अनुसार निर्धनता रेखा से नीचे रहने वाली जनसंख्या वर्ष 1960-61 और वर्ष 1968-69 में क्रमशः 17.67 करोड़ और 21.6 करोड़ थी । वर्ष 1976-77 में निर्वाह व्यय बढ़ गया, गांवों में 62 रुपये तथा शहरी क्षेत्रों में 71 रुपये प्रति माह वाले लोगों को निर्धनता रेखा से नीचे माना गया ।
भारतीय योजना आयोग के मतानुसार शहरी क्षेत्रों में 152 रुपये प्रति माह उपभोग व्यय करने वाले लोगों को तथा ग्रामीण क्षेत्रों में 132 रुपये उपभोग व्यय करने वाले लोगों को (वर्ष 1988-89 की कीमतों पर) निर्धनता रेखा के बीच स्वीकार किया गया ।
विशेषज्ञ वर्ग के विवरण अनुसार वर्ष 1987-88 में जनसंख्या का 393 प्रतिशत निर्धनता रेखा से नीचे रह रहा था जिनकी संख्या 21 करोड़ थी । एन.एस.एस.ओ. अनुसार, वर्ष 1993-94 की कीमतों पर, वह व्यक्ति जिनका प्रति व्यक्ति प्रति माह उपभोग, गावों में 229 रुपये से कम है तथा शहरों में 229 रुपये से कम है उन्हें निर्धनता रेखा से नीचे माना गया ।
आधारभूत आवश्यकताओं पर आधारित निर्धनता की परिभाषा (Basic Need Approach for Defining Poverty):-
निर्धनता की औपचारिक परिभाषा वास्तवित तथ्यों को नहीं दर्शाती । वर्तमान में पाँच वर्ष से कम आयु वाले भारतीय बच्चों में से 47 प्रतिशत बच्चे निर्धारित वजन से कम वजन के हैं । UNICEF की रिपोर्ट के अनुसार वास्तव में सरकार द्वारा परिभाषित निर्धनता रेखा ‘भूखमरी रेखा’ (Starvation Line) है ।
अर्थात ग्रामीण क्षेत्रों में जिन लोगों की प्रति व्यक्ति आयु 368 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति महीना से कम है तथा शहरी इलाकों में 559 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति महीना से कम है ऐसे व्यक्ति आवश्यक मात्रा में खाद्यान्न भी नहीं खरीद सकता । अब आधारभूत आवश्यकताओं पर आधारित निर्धनता की नयी परिभाषा दी गई है ।
इस परिभाषा के अनुसार एक व्यक्ति को मानवीय ढंग से जीवन यापन करने के लिए आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति पर जो व्यय करना पड़ता है, उसके आधार पर निर्धनता रेखा को परिभाषित किया जाता है । इसके अंतर्गत निर्धनता रेखा को 840 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति माह उपभोग व्यय पर परिभाषित किया गया है ।
यदि एक परिवार में पाँच सदस्य हैं तो उस परिवार को कम से कम 4,200 रुपये (840×5) प्रति माह उपभोग व्यय करने पड़ेंगे ताकि वे अपनी आधारभूत आवश्यकताएँ पूरी करते हुए मानवीय ढंग से जीवनयापन कर सकें । यदि किसी व्यक्ति की आय 840 रुपये प्रति माह से कम है, तो वह व्यक्ति निर्धनता रेखा से नीचे रह रहा है ।
भारत में निर्धनता संबंधी कड़े इस आधार पर नहीं निकाले जाते । यदि इस आधार पर निर्धनता की गणना की जाए तो भारत की 69 प्रतिशत जनसंख्या निर्धनता रेखा से नीचे रह रही है । इस आधार पर ग्रामीण क्षेत्रों की 84 प्रतिशत जनसंख्या तथा शहरी क्षेत्रों की 42 प्रतिशत जनसंख्या निर्धनता रेखा से नीचे रह रही है ।
निर्धनता रेखा (Poverty Line):
निर्धनता रेखा, वह रेखा है जो उस क्रय शक्ति को प्रकट करती है जिसके द्वारा लोग अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करते हैं । क्रय शक्ति को प्रति व्यक्ति औसत मासिक व्यय (Per-Capita Average Monthly Expenditure) के रूप व्यक्त किया जा सकता है । यदि हमें यह मालूम हो जाये कि एक व्यक्ति का जीवन स्तर न्यूनतम बनाये रखने के लिये क्रय शक्ति का स्तर अर्थात् प्रति व्यक्ति औसत मासिक व्यय क्या होना चाहिए तो उस स्तर से थोड़ा नीचे जीवन बिताने वालों को निर्धन माना जा सकता है ।
अतः निर्धनता रेखा से नीचे (Below the Poverty Line) वे लोग हैं जिनके पास न्यूनतम क्रय शक्ति अर्थात् न्यूनतम मासिक व्यय वहन करने के लिए भी धन नहीं होता । ऐसे लोगों को निर्धन माना जा सकता है । इसके विपरीत इतनी या इससे अधिक क्रय शक्ति (मासिक व्यय) वाला प्रत्येक व्यक्ति निर्धनता रेखा से ऊपर (Above the Poverty Line – APL) है अर्थात् वह व्यक्ति निर्धन नहीं है ।
इस प्रकार निर्धनता रेखा जनसंख्या को दो भागों में बांटा जा सकता है:
(i) एक वह जिनके पास न्यूनतम क्रय शक्ति या उससे अधिक है । इस भाग को निर्धन नहीं माना जाता,
(ii) दूसरा वह जिसके पास न्यूनतम क्रय शक्ति नहीं है । इस दूसरे वर्ग को निर्धन कहा जा सकता है ।
भारत में निर्धनता रेखा का निर्धारण (Determination of Poverty Line in India):
भारतों निर्धनता रेखा को परिभाषित करने का प्रयत्न सर्वप्रथम 1962 में प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों जैसे गाडगिल, डी॰ एन॰ गांगुली, लोकनाथन आदि के एक कार्यदल ने किया । इस कार्यदल के अनुसार, निर्धनता रेखा का निर्धारण उस प्रति व्यक्ति मासिक व्यय से किया जायेगा जो न्यूनतम दैनिक आहार की आवश्यताओं तथा जीवन की अन्य आवश्यकताओं, जैसे-कपड़ा, भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, मनोरंजन आदि को पूरा करने के लिये आवश्यक है ।
इस कार्य दल ने वर्ष 1960-61 की कीमतों पर ग्रामीण क्षेत्र में 20 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति महीना उपभोग व्यय तथा शहरी क्षेत्र में 25 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति महीना उपभोग व्यय पर निर्धनता रेखा निर्धारित की थी । इसका अर्थ यह हुआ कि देश में 1960-61 में जिन ग्रामीण क्षेत्र के लोगों का प्रति व्यक्ति प्रति महीना उपभोग व्यय 20 रुपये से कम तथा शहरी क्षेत्र में 25 रुपये से कम था उन्हें निर्धनता रेखा से नीचे माना गया ।
आजकल भारत में गरीबी रेखा को नेशनल सैम्पल सर्वे संगठन (NSSO) द्वारा परिभाषित किया जाता है । हर पांच वर्षों में NSSO एक बार गरीबी मापने का विस्तृत सर्वेक्षण करता है । वर्ष 2004-05 की NSSO रिपोर्ट के अनुसार गरीबी रेखा ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिदिन 2400 कैलोरी तथा शहरी क्षेत्रों में प्रतिदिन 2100 कैलोरी लेने के लिए किए गए उपभोग व्यय हैं ।
यह व्यय ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 2004 की कीमतों पर 368 रुपये प्रति माह तथा शहरी क्षेत्रों के लिये 559 रुपये प्रतिमाह निर्धारित किया गया है । NSSO के अनुमान के अनुसार वर्ष 2004-05 में भारत की लगभग 21.8 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे रह रही थी । यदि अन्तर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा, 1.25 U.S. डॉलर व्यक्ति, प्रतिदिन को आधार पर माना जाये तब वर्ष 2006 में भारत की 49.4 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे रह रही थी ।
एशियन विकास बैंक ने US डॉलर 1.35 प्रतिदिन के आधार पर नई गरीबी रेखा को परिभाषित किया है । इस आधार पर, वर्ष 2007-08 में भारत की 55 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे थी ।
निर्धनता के लिये उत्तरदायी कारक (Factors Responsible for Poverty):
भारत में निर्धनता का अत्याधिक प्रसार है । इसके लिये उत्तरदायी मुख्य कारक निम्नलिखित हैं:
- तीव्रतापूर्वक बढ़ती हुई जनसंख्या (Rapidly Rising Population):
पिछले 60 वर्षों में जनसंख्या 2.2 प्रतिवर्ष के दर से बड़ी है । औसतन 17 मिलियन लोग भारत की जनसंख्या में प्रति वर्ष जुड़ते हैं जिससे उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में पर्याप्त वृद्धि होती है ।
- कृषि में कम उत्पादन (Less Productivity in Agriculture):
कृषि में उत्पादकता का स्तर खेतों के छोटे आकार, पूंजी का अभाव, कृषि की परम्परागत विधियों का उपयोग और निरक्षरता आदि के कारण है ।
- अल्प प्रयुक्त साधन (Under Utilized Resources):
मानवीय साधनों के अल्प-रोजगार और अदृश्य बेरोजगारी तथा साधनों के अल्प उपयोग की उपस्थिति कृषि क्षेत्र में कम उत्पादन का कारण बनी है, जिसके कारण लोगों का जीवन स्तर नीचे आया है ।
- कीमतों में वृद्धि (Price Rise):
निरन्तर बढती हुई कीमतों, विशेषकर खाद्य पदार्थों तथा पैट्रोल और डीजल की कीमतों, ने आम लोगों की मुसीबतों में वृद्धि की है । इससे समाज में बहुत थोड़े लोगों को लाभ प्राप्त हुआ है तथा निम्न वर्ग के लोग अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति में कठिनाई अनुभव करते हैं ।
- बेरोजगारी (Unemployment):
बेरोजगार लोगों की निरन्तर बढ़ती हुई संख्या निर्धनता का एक अन्य कारण है । काम खोजने वालों की संख्या, रोजगार के अवसरों के विस्तार के दर के अनुपात में बड़ी है ।
- सामाजिक कारक (Social Factors):
सामाजिक व्यवस्था अभी भी पिछड़ी हुई है तथा तीव्र विकास में सहायक नहीं है । उत्तराधिकार के नियम, जाति प्रथा तथा रीति-रिवाज तीव्र विकास के माँग में बाधा बन रहे हैं जिससे निर्धनता की समस्या और भी तीव्र हो गई है ।
- राजनैतिक कारक (Political Factors):
अंग्रेजों ने भारत में अधूरे विकास की प्रक्रिया द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था में उपनिवेशी राज्य बना दिया । उन्होंने अपने हितों के अनुकूल प्राकृतिक साधनों का शोषण किया और भारतीय अर्थव्यवस्था के औद्योगिक आधार को दुर्बल बना दिया । स्वतन्त्र भारत में विकास योजनाएं राजनैतिक हितों से प्रेरित होती है । अतः निर्धनता और बेरोजगारी की समस्याओं के समाधान में आयोजन असफल रहा ।
निर्धनता के समाधान के लिए अनुकूल उपाय (Suitable Measures for Finding Solution of Poverty):
सामाजिक रूप में सुस्पष्ट निर्धनता न तो वांछनीय है और न ही सहनीय । पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने सत्य ही कहा था, ”किसी निर्धन देश में पुन: वितरण के लिये केवल निर्धनता ही होती है ।”
आय की असमानताओं को दूर करने के सम्बन्ध में निम्नलिखित उपाय अति सहायक हैं:-
- रोजगार के अधिक अवसर (More Employment Opportunities) :- रोजगार के अधिक अवसर उपलब्ध करके निर्धनता का उन्मूलन किया जा सकता है ताकि लोग अपनी आधारभूत आवश्यकताओं को पूरा कर सके । इस प्रयोजन से पूजी-गहन तकनीकों की तुलना में श्रम-गहन तकनीकें समस्याओं के समाधान में अधिक सहाय न, सिद्ध हो सकती हैं ।
छठी और सातवीं पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में निर्धनता उन्मुलन के लिये अनेक कार्यक्रम जैसे सम्बद्ध ग्रामीण विकास कार्यक्रम, जवाहर रोजगार योजना और ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारटी कार्यक्रम आदि आरम्भ किये गये ।
- न्यूनतम आवश्यकताओं के कार्यक्रम (Minimum Needs Programme) :- न्यूनतम आवश्यकताओं का कार्यक्रम निर्धनता कम करने में सहायक हो सकता है । यह तथ्य सत्तर के दशक के आरम्भ में महसूस किया गया जब वृद्धि के लाभ निर्धन लोगों को प्राप्त नहीं हुये तथा अल्प-विकसित देशों के पास समाज वे; निम्न वर्ग की मौलिक आवश्यकताओं की ओर सीधा ध्यान देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था । पांचवीं पंचवर्षीय योजना में न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम पहली बार आरम्भ किया गया ।
- सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम (Social Security Programme) :– विभिन्न सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ जैसे श्रमिकों का क्षतिपूर्ति अधिनियम, मातृत्व लाभ अधिनियम, भविष्य निधि योजना तथा कर्मचारी का राज्य बीमा अधिनियम तथा मृत्यु अयोग्यता अथवा कार्य के दौरान बीमारी आदि की स्थिति में अन्य लाभ निर्धनता पर प्रहार कर सकती है ।
- लघु-स्तरीय उद्योगों की स्थापना (Establishment of Small Scale Industries) :- कुटीर एवं लघु उद्योगों के प्रोत्साहन की नीति ग्रामीण क्षेत्रों में विशेषतया पिछड़े क्षेत्रों में रोजगार की रचना में सहायक हो सकती है । इसके अतिरिक्त, इससे अधिक विकास वाले क्षेत्रों से कमी वाले क्षेत्रों को ओर शहरीकरण की समस्या उत्पन्न किये बिना साधनों का स्थानान्तरण होगा ।
- ग्रामीण लोगों की प्रगति (Uplift of Rural Masses) :– भारत गांवों में बसता है, अतः ग्रामीण निर्धनों की उन्नति के लिये विभिन्न योजनाएं आरम्भ की जानी चाहियें । गांवों में रहने वाले निर्धन प्रायः भूमिहीन कृषि श्रमिकों के परिवारों, छोटे और सीमान्त किसान, ग्रामीण कारीगर, अनुसूचित जातियों और जनजातियों से सम्बन्धित होते हैं । तथापि यह स्मरणीय है कि भारत सरकार ने समय-समय पर निर्धन लोगों की प्रगति के लिये अनेक योजनाएँ आरम्भ की हैं ।
- भूमि सुधार (Land Reforms) :– भूमि सुधारों का नारा है, ”भूमि का स्वामी खेती करने वाला है ।” जमींदारी प्रथा की समाप्ति के लिये वैधानिक उपाय किये गये । मध्यस्थों तथा कृषि भूमि की सीमा निश्चित की गई । परन्तु, दुर्भाग्य की बात है कि इन भूमि सुधारों का उचित कार्यान्वयन नहीं हुआ । तब भी आशा की जाती है कि यदि इन सुधारों का गम्भीरता से कार्यान्वयन किया जाता है तो इससे बेहतर परिणाम प्राप्त होंगे जिससे समृद्ध वर्ग की आय कम करने में सहायता प्राप्त होगी ।
- शिक्षा का प्रसार (Spread of Education) :– शिक्षा, मानवीय शरीर, मन और आत्मा से सर्वोत्तम गुणों को बाहर लाने में सहायता करती है । इसलिये सब को शिक्षा सुविधाएं उपलब्ध करना आवश्यक है निर्धन लोगों को छात्रवृति, निःशुल्क पुस्तकें और आकस्मिक भत्ते के रूप में विशेष सुविधाएं दी जानी चाहियें । शिक्षा निर्धन लोगों में जागृति लायेगी और उनकी मानसिक योग्यता को बढायेगी ।
- सामाजिक और राजनीतिक वातावरण (Social and Political Atmosphere) :- नागरिकों और राज-नेताओं के सक्रिय सहयोग के बिना भारत से निर्धनता का उन्मूलन नहीं किया जा सकता । निर्धनता को जड़ से उखाड़ फैंकने के लिये अनुकूल सामाजिक एवं राजनीतिक वातावरण आवश्यक है ।
- न्यूनतम आवश्यकताएँ उपलब्ध करवाना (To Provide Minimum Requirement) :- समाज के निर्धन वर्ग को न्यूनतम आवश्यकताएँ उपलब्ध करवाना निर्धनता की समस्या को दूर करने में सहायक हो सकता है । इसके लिये सार्वजनिक प्रापण और वितरण प्रणाली को सुधारना तथा दृढ़ बनाना आवश्यक है।
भारत में गरीबी का अनुमान आधुनिक मापदण्ड सहित:
भारत में अनेक अर्थशास्त्रीयों एवं संस्थानों ने निर्धनता के निर्धारण के लिए अपने-अपने मानदण्ड बनाए । इन सभी अध्ययनों का आधार कैलोरी को बनाया गया है । योजना आयोग द्वारा गठित विशेष दल की रिपोर्ट के अनुसार- “ग्रामीण क्षेत्र में प्रति व्यक्ति 2400 कैलोरी प्रतिदिन तथा शहरी क्षेत्र में प्रति व्यक्ति 2100 कैलोरी प्रतिदिन के हिसाब जिन्हें प्राप्त नहीं हो पाता उसे गरीबी से नीचे माना जाता है ।”
निर्धनता रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों की पहचान का मुददा पिछले कुछ नियम से विहादस्पद बना हुआ है योजना आयोग राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के सर्वेक्षणों के आधार पर निर्धनता की गणना करता है ।
वही प्रो.डी.टी. लकड़ावोलो की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञों दल ने योजना आयोग के इन आकडों के अविश्वसनीय बताते हुए निर्धनता की पहचान के लिए वैकल्पिक फार्मूले का उपयोग किया जिसके तहत प्रत्येक राज्य में मूल्य स्तर के आधार पर अलग-अलग निर्धनता रेखा का निर्धारण लकडावोलो फार्मूले में शहरी निर्धनता के आकलन हेतु ओद्योगीक श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांको को आधार बनाया गया है । इस प्रकार लकड़ावोलो फार्मूले के तहत सभी राज्यों में अलग निर्धनता रेखायें (कुल 35) होंगी ।
निर्धनता आकलन हेतु रंगराजन समिति 2012:
योजना आयोग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर एक शपथ पत्र के अनुसार शहरी क्षेत्रों में 28.65 प्रति व्यक्ति प्रतिदिन उपभोग व्यय तथा ग्रामीण क्षेत्रों में 22.42 प्रति व्यक्ति प्रतिदिन उपभोग व्यय को निर्धनता रेखा निरूपित किये जाने की तीखी आलोचनाओं के बीच योजना आयोग ने इसकी वकालत की है।
गरीबी मापन प्रणाली की समीक्षा हेतु सी. रंगराजन की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञ समूह ने अपना प्रतिवेदन (रिपोर्ट) योजना आयोग को जुलाई 2014 के प्रथम सप्ताह में सौंपा l
सी. रंगराजन विशेषज्ञ समूह की रिपोर्ट के मुख्य बिंदु :
- शहरी इलाकों में गरीबी हेतु व्यय सीमा रुपये 47 प्रति व्यक्ति प्रतिदिन निर्धारित की गयी जबकि ग्रामीण इलाकों में यह सीमा रुपये 32 प्रति व्यक्ति प्रतिदिन रखी गयी l
- प्रति परिवार औसत मासिक व्यय की सीमा शहरी इलाकों हेतु रुपये 1407 तथा ग्रामीण इलाकों हेतु रुपये 972 निर्धारित की गयी l
- पांच व्यक्तियों के परिवारों हेतु राष्ट्रीय स्तर पर गरीबी रेखा के आकड़े वर्ष 2011-12 में शहरी इलाकों हेतु रुपये 7035 मासिक तथा ग्रामीण इलाकों हेतु रुपये 4760 मासिक था l
- वर्ष 2011-12 में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों की संख्या का प्रतिशत शहरी इलाकों में 26.4 तथा ग्रामीण इलाकों में 30.95 प्रतिशत था l
- रंगराजन समिति के अनुसार, वर्ष 2011-12 में वर्ष 2009-10 की तुलना में 9.16 करोड़ लोग गरीबी रेखा के स्तर से उपर निकले थे और वर्ष वर्ष 2009-10 में यह आकड़ा 45.46 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे थे l
- रंगराजन समिति की गरीबी मापन प्रणाली के आधार पर वर्ष 2009-10 में पिछले दो वर्षों की तुलना में गरीबी 8.7 प्रतिशत कम हुई जबकि तेंदुलकर समिति की प्रणाली के आधार पर यह आकड़ा 7.9 प्रतिशत था l
- गरीबी मापन हेतु रंगराजन की प्रणाली के अनुसार वर्ष 2009-10 में गरीबी दर 8.7 प्रतिशत गिरा, जबकि तेंदुलकर द्वारा सुझायी गयी प्रणाली के तहत यह 7.9 प्रतिशत था l
- पूरे देश में वर्ष 2004-05 में शहरी एवं ग्रामीण इलाकों में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों के प्रतिशत का अनुपात क्रमश: 27.7 प्रतिशत तथा 41.8 प्रतिशत था, जबकि इसी वर्ष में पूरे देश का आकड़ा 37.2 प्रतिशत था. ये आकड़े वर्ष 1993-94 में क्रमश: 31.8 प्रतिशत और 50.1 प्रतिशत थे, जबकि पूरे देश का आकड़ा 45.3 प्रतिशत था l
संयुक्त राष्ट्र रिर्पोट :
भारत में निर्धनता अनुपात घटने की दर धीमी होने के बावजूद सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य (मिलेनियम डेवलपमेंट गोल) प्राप्त होने की सम्भावना संयुक्त राष्ट्र रिर्पोट में व्यक्त की गई हे । भारत में निर्धनता अनुपात घटने की दर पूर्वी व दक्षिण पूर्वी एशियाई तेशो की तुलना में कॉफी कम है । जिसके बावजूद निर्धनता अनुपात 50 प्रतिशत कटोती मिलेनियम सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकेगा ।
मिलेनियम डेवलमेंट लक्ष्य पर संयुक्त राष्ट्र की 2010 की रिर्पोट में इस सम्बंध में बताया गया है कि भारत में निर्धनता अनुपात, जो 1990 में 51 प्रतिशत था, 2015 में 24 प्रतिशत तक आने की सम्भावना है । 23 जून, 2010 को नई दिल्ली में जारी इस रिपोर्ट ने बताया है कि निर्धनता अनुपात घटाने के मामले में पूर्वी व दक्षिण पूर्वी एशियाई देश सबसे आगे है ।
जुलाई, वर्ष 2019 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार :
वर्ष 2006 से 2016 के बीच रिकॉर्ड 27.10 लोग गरीबी से बाहर निकले हैं. फिर भी करीब 37 करोड़ लोग आज भी गरीब हैं l
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2005-06 में भारत के करीब 64 करोड़ लोग (55.1 प्रतिशत) गरीबी में थे. यह संख्या घटकर 2015-16 में 36.9 करोड़ (27.9 प्रतिशत) पर आ गयी. इस प्रकार, भारत ने बहुआयामी यानी विभिन्न स्तरों और उक्त 10 मानकों में पिछड़े लोगों को गरीबी से बाहर निकालने में उल्लेखनीय प्रगति की है l
इस दौरान खाना पकाने का ईंधन, साफ-सफाई और पोषण जैसे क्षेत्रों में मजबूत सुधार के साथ गरीबी सूचकांक मूल्य में सबसे बड़ी गिरावट आयी है l
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) और आक्सफोर्ड पोवर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनीशिएटिव (ओपीएचआई) द्वारा तैयार वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) जुलाई , 2019 को जारी किया गया l
रिपोर्ट में 101 देशों में 1.3 अरब लोगों का अध्ययन किया गया l इसमें 31 न्यूनतम आय, 68 मध्यम आय और दो उच्च आय वाले देश शामिल थे l इन देशों में कई लोग विभिन्न पहलुओं के आधार पर गरीबी में फंसे थे l यानी गरीबी का आकलन सिर्फ आय के आधार पर नहीं बल्कि स्वास्थ्य की खराब स्थिति, कामकाज की खराब गुणवत्ता और हिंसा का खतरा जैसे कई संकेतकों के आधार पर किया गया l
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में गरीबी में कमी को देखने के लिये संयुक्त रूप से करीब दो अरब आबादी के साथ 10 देशों को चिन्हित किया गया l आंकड़ों के आधार पर इन सभी ने सतत विकास लक्ष्य 1 प्राप्त करने के लिये उल्लेखनीय प्रगति की. सतत विकास लक्ष्य 1 से आशय गरीबी को सभी रूपों में हर जगह समाप्त करना है l ये 10 देश बांग्लादेश, कम्बोडिया, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो, इथियोपिया, हैती, भारत, नाइजीरिया, पाकिस्तान, पेरू और वियतनाम हैं. इन देशों में गरीबी में उल्लेखनी कमी आयी है l
रिपोर्ट के मुताबिक, ”सबसे अधिक प्रगति दक्षिण एशिया में देखी गई l भारत में 2006 से 2016 के बीच 27.10 करोड़ लोग, जबकि बांग्लादेश में 2004 से 2014 के बीच 1.90 करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकले.” इसमें कहा गया है कि 10 चुने गये देशों में भारत और कम्बोडिया में एमपीआई मूल्य में सबसे तेजी से कमी आयी l इन देशों ने सबसे गरीब लागों को गरीबी से बाहर निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी l
भारत का एमपीआई मूल्य 2005-06 में 0.283 था जो 2015-16 में 0.123 पर आ गया. रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में गरीबी में कमी के मामले में सर्वाधिक सुधार झारखंड में देखा गया l वहां विभिन्न स्तरों पर गरीबी 2005-06 में 74.9 प्रतिशत से कम होकर 2015-16 में 46.5 प्रतिशत पर आ गयी l इसमें कहा गया है कि दस संकेतकों-पोषण, स्वच्छता, बच्चों की स्कूली शिक्षा, बिजली, स्कूल में उपस्थिति, आवास, खाना पकाने का ईंधन और संपत्ति के मामले में भारत के अलावा इथोपिया और पेरू में उल्लेखनीय सुधार दर्ज किये गये l
बहुआयामी निर्धनता निर्देशक :
अर्न्तराष्ट्रीय निर्धनता माप का सूचक है जिसे संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के लिए आक्सफोर्ड निर्रीनता एवं मानव विकास पहल द्वाश ध्वजवाहक मानव विकास रिर्पोट हेतु विकसित किया गया है। यह निर्देशक व्यक्तिगत स्तर पर निर्धनता की प्रकृति तथा गहनता का आकलन करते हुए विभिन्न देशों क्षेत्रों एवं विश्व में निर्धनता के मकड़जाल में फँसे लोगों का विहगम दृश्य प्रस्तुत करता है । बहुआयामी निर्धनता निर्देशक में तीन आयाम है- स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर । इसके आकलन हेतु निम्नलिखित 10 सूचकों को प्रयुक्त किया जाता है ।
शिक्षा :–
शिक्षा को 1/6 के बराबर भारांकन दिया गया है ।
(i) विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने के वर्ष- 5 वर्ष का कोई बच्चा विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने से वंचित तो नहीं रहा है ।
(ii) विद्यालय में उपस्थिति- यदि एक से आठ वर्ष तक कोई बच्चा विद्यालय जाने से वंचित रहा हो ।
स्वास्थ्य :–
स्वास्थ्य को 1/6 के बराबर भाराकन दिया गया है ।
(i) बालमृत्यु :- स्वारथ्य सेवाओं में वंचित रह कर यदि किसी बच्चे की मृत्यु हो गई हो ।
(ii) पोषण :- यदि कोई बच्चा कुपोषित हो गया हो ।
(iii) जीवन स्तर :- जीवन स्तर को 1/6 के बराबर भारांकन दिया गया है ।
(a) विद्युत – यदि कोई घर बिजली संयोजक से वंचित है ।
(b) पेयजल – यदि किसी परिवार में पेय जल स्त्रोत नहीं है ।
(c) स्वच्छता – यदि किसी परिवार या घर में शौचालय उपलब्ध न हो ।
(d) फर्श – यदि फर्श गोबर से लीपा गया हो ।
(e) भोजन – पकाने का ईंधन गोबर से बने उपले का प्रयोग किया जाता हो ।
(f) साधन – ऐसे परिवार जिनके पास रेडियो, टी.वी., टेलिफोन, साइकिल, मोटर साईकिल, रेफ्रीजरेटर में से कोई नहीं हो ।
उर्पयुक्त वस्तुगत अभिलक्षणों के आधार पर ऐसे सभी व्यक्तियों को बहुआयामी निर्धन माना जाता है, जो इनमें से एक तिहाई या इससे अधिक उपयोग से वंचित हो ।
भारत में निर्धनता की स्थिति :–
निर्धनता अनुपात में लगातार कमी के बावजूद भारत ने कई राज्यों में निर्धनता की स्थिति चिंताजनक पायी है, बनाए गए एक नए मल्टीडायमेंशनल पावर्टी डेडेक्स के आधार पर यह पाया गया कि भारत के आठ राज्यों में ही निर्धनता अफ्रीका के 26 निर्धनतम देशों में निर्धनों की कुल संख्या से अधिक है ।
उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की मानव विकास रिर्पोट में निर्धनता की स्थिति के आकलन हेतु मानव गरीबी सूचकांक हयून पावर्टी इंण्डेक्स का उपयोग 1997 से किया जाता रहा है । उपर्युक्त नया ‘बहु उद्देश्यीय गरीबी सूचकांक’ वर्ष 2010 की मानव विकास रिर्पोट में ही पहली बार शामिल किया गया था । यह रिर्पोट अक्टूबर, 2010 में प्रकाशित की गई थी ।
भारत में गरीबी के निवारण हेतु सुझाव :–
भारत में गरीबी के निवारण की गति धीमी होने के कारण इन्हें निम्न सुझावों के माध्यम से गरीबी को कम किया जा सकता है । ये प्रमुख सुझाव निम्नानुसार है :-
(1) आर्थिक विकास की गति को तेज करना बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन करके एवं पूँजी निर्माण की दर में वृद्धि कर आर्थिक विकास की दर में वृद्धि की जा सकती है । फलस्वरूप आय में वृद्धि होगी ओर निर्धनता भी कम होगी ।
(2) कुटीर एवं लघुउद्योगों का विकास करके अधिक व्यक्तियों को रोजगार प्रदान किया जा सकता है । इसके अतिरिक्त आय के साधनों का विकास होगा और गरीबी दूर होगी ।
(3) कृषि विकास देश की 5 प्रतिशत जनसंख्या कृषि कार्य में आज भी संलग्न है अतः देश में कृषि विकास की ओर ध्यान देना अति आवश्यक है । यदि कृषि का विकास हो जाये तो निर्धनता स्वयं कम हो जायेगी ।
(4) ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक निर्माण कार्य इसके अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों का निर्माण, नहर, कुएँ, ग्रामीण आवास विद्युत के निर्माण कार्य किये जाए जिससे लोगों को रोजगार मिलेगा और आर्थिक स्थिति में सुधार होगा ।
(5) समाजिक न्याय को बढ़ावा देना गरीबी दूर करने के लिए गरीबों की हिस्सेदारी बढ़ाना आवश्यक है साथ ही गरीबों को अनुदान, रियायती दरों पर ऋण उपलब्ध कराना जिससे गरीबों की मदद हो सके ।
(6) जनसंख्या नियंत्रण गरीब परिवारों में जन्मदर ऊची होती है, अत: इसे घटाया जाना बहुत आवश्यक है इसके लिए इनके बीच परिवार कल्याण कार्यक्रम को प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिये ।
इस तरह देश में गरीबी दूर करना तथा बेरोजगारी की समस्या से निजात पाना बड़ा चुनौती भरा कार्य है । इस समस्या से छुटकारा प्राप्त करने के लिए सघन आर्थिक एवं समाजिक प्रयास तथा दृढ़ राजनैतिक इच्छा शक्ति की आवश्यकता है । इस सबके द्वारा ही हम गरीबी जैसे बुराई से छुटकारा प्राप्त कर सकते हैं ।
गरीबी दूर करने की नीति आयोग की रणनीति :-
2017 में नीति आयोग ने गरीबी दूर करने हेतु एक विज़न डॉक्यूमेंट प्रस्तावित किया था। इसमें 2032 तक गरीबी दूर करने की योजना तय की गई थी। इस डॉक्यूमेंट में कहा गया था कि गरीबी दूर करने हेतु तीन चरणों में काम करना होगा-
गरीबों की गणना – देश में गरीबों की सही संख्या का पता लगाया जाए। गरीबी उन्मूलन संबंधी योजनाएँ लाई जाएँ। लागू की जाने वाली योजनाओं की मॉनीटरिंग या निरीक्षण किया जाए। आज़ादी के 70 साल बाद भी गरीबों की वास्तविक संख्या का पता नहीं चल पाया है।
देश में गरीबों की गणना के लिये नीति आयोग ने अरविंद पनगढ़िया के नेतृत्व में एक टास्क फ़ोर्स का गठन किया था। 2016 में इस टास्क फ़ोर्स की रिपोर्ट आई जिसमें गरीबों की वास्तविक संख्या नहीं बताई गई।
टास्क फ़ोर्स ने इसके लिये एक नया पैनल बनाने की सिफारिश की और सरकार ने सुमित्र बोस के नेतृत्व में एक समिति गठित की जिसकी रिपोर्ट मार्च 2018 में प्रस्तुत की गई।
समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना को आधार बनाकर देश में गरीबों की गणना की जानी चाहिये। इसमें संसाधनहीन लोगों को शामिल किया जाए तथा जो संसाधन युक्त हैं, उन्हें इसमें शामिल न किया जाए।
नीति आयोग ने गरीबी दूर करने के लिये दो क्षेत्रों पर ध्यान देने का सुझाव दिया-पहला योजनाएँ तथा दूसरा MSME। देश में वर्कफ़ोर्स के लगभग 8 करोड़ लोग MSME क्षेत्र में काम करते हैं तथा कुल वर्कफोर्स के 25 करोड़ लोग कृषि क्षेत्र में काम करते हैं। अर्थात् कुल वर्कफोर्स का 65 प्रतिशत इन दो क्षेत्रों में काम करता है।
वर्कफोर्स का यह हिस्सा काफी गरीब है और गरीबी में जीवन यापन कर रहा है। यदि इन्हें संसाधन मुहैया कराए जाएँ, इनकी आय दोगुनी हो जाए तथा मांग आधारित विकास पर ध्यान दिया जाए तो शायद देश से गरीबी ख़त्म हो सकती है।
गरीबी उन्मूलन की दिशा में भारत की स्थिति :–
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) द्वारा जारी वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक 2018 (Multidimensional Poverty Index-MPI) के मुताबिक, 2005-06 तथा 2015-16 के बीच भारत में 270 मिलियन से अधिक लोग गरीबी से बाहर निकले और देश में गरीबी की दर लगभग 10 वर्ष की अवधि में आधी हो गई है। भारत ने बहुआयामी गरीबी को कम करने में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है।
इस प्रकार दस वर्षों के भीतर, भारत में गरीब लोगों की संख्या 271 मिलियन से कम हो गई जो कि वास्तव में बहुत बड़ी उपलब्धि है।
पिछले कुछ सालों में भारत में गरीबी दूर करने की दिशा में अच्छा प्रयास किया गया है। पिछले आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार, 22 प्रतिशत भारतीय गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं।
भारत की अधिकांश आबादी अभी भी गाँवों में रहती है। हालाँकि भारत में ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में पर्याप्त प्रवासन हुआ है लेकिन भारत की लगभग 68% आबादी अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। हालाँकि गरीबी समय के साथ कम होती रही है, शहरी क्षेत्रों में गरीबी में कमी की दर ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक रही है। शहरी क्षेत्रों की 13.7% की तुलना में आज भी ग्रामीण भारत की लगभग 26% आबादी गरीब है।
रंगराजन समिति के अनुमान भी इस बात के संकेत देते हैं कि 2011-12 में ग्रामीण गरीबी का प्रतिशत शहरी गरीबी से अधिक था और यह लगभग 31% थी।
आज़ादी के 70 साल बाद भी गाँव सामाजिक-आर्थिक विश्लेषण के लगभग हर पहलू पर पीछे दिखाई दे रहे हैं।
भारत ने समृद्ध शहरों और गरीब गाँवों की अर्थव्यवस्था बनाई है जिससे शहरी क्षेत्रों में वृद्धि और ग्रामीण क्षेत्रों में गिरावट आ रही है।
केंद्र में मौजूदा सरकार प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई जिसका प्राथमिक उद्देश्य “सब का साथ सबका विकास” था। शहरों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की बढ़ती खाई को पाटने के लिये अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी गरीबी :–
ग्रामीण गरीबी काफी हद तक कम उत्पादकता और बेरोज़गारी का परिणाम है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था व्यापक रूप से कृषि पर निर्भर करती है। लेकिन भारत में खेती अप्रत्याशित मानसून पर निर्भर करती है जिससे उपज में अनिश्चितता की स्थिति बनी रहती है।
पानी की कमी, खराब मौसम तथा सूखा भी ग्रामीण इलाकों में गरीबी का प्रमुख कारण है। चरम गरीबी कई किसानों को आत्महत्या करने के लिये मजबूर करती है।
कई ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति इतनी दयनीय है कि इनमें स्वच्छता, बुनियादी ढाँचा, संचार और शिक्षा जैसी सुविधाओं का भी अभाव है।
भारत में अमीरों और गरीबों के बीच व्यापक अंतर भी गरीबी का मुख्य कारण है। इससे अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब होते जा रहे हैं। अतः दोनों के बीच बढ़ते इस आर्थिक अंतर को कम करना होगा।
देश की सामाजिक व्यवस्था को बदलना होगा। साथ ही कृषि समस्याओं को हल करने के लिये किसानों को सिंचाई की सभी सुविधाएँ दी जानी चाहिये।
गरीबी उन्मूलन की दिशा में सरकारों द्वारा किये गए प्रयास :
- विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार का लक्ष्य गरीबी दूर करना नहीं बल्कि समृद्धि लाना होना चाहिये क्योंकि समृद्धि से ही गरीबी उन्मूलन संभव है।
- आर्थिक सुधारों के बाद भारत की अर्थव्यवस्था तेज़ गति से वृद्धि कर रही है। लेकिन उच्च आर्थिक वृद्धि दर के बिना गरीबी कम नहीं हो सकती।
- आर्थिक वृद्धि को ध्यान में रख कर सरकार द्वारा अनेक योजनाओं एवं कार्यक्रमों की शुरुआत की गई है, जैसे रोज़गार सृजन कार्यक्रम, आय समर्थन कार्यक्रम, रोज़गार गारंटी तथा आवास योजना आदि।
- प्रधानमंत्री जन धन योजना (PMJDY) ऐसा ही एक कार्यक्रम है। यह योजना आर्थिक रूप से वंचित लोगों को विभिन्न वित्तीय सेवाओं जैसे- बचत खाता, बीमा, आवश्यकतानुसार ऋण, पेंशन आदि तक पहुँच प्रदान करती है।
- किसान विकास पत्र के माध्यम से किसान 1,000, 5000 तथा 10,000 रुपए मूल्यवर्ग में निवेश कर सकते हैं। इससे जमाकर्त्ताओं का धन 100 महीनों में दोगुना हो सकता है।
- दीन दयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना (DDUGJY) को ग्रामीण क्षेत्रों को बिजली की निरंतर आपूर्ति प्रदान करने हेतु शुरू किया गया है।
- महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) के तहत देश भर के गाँवों में लोगों को 100 दिनों के काम की गारंटी दी गई है।
- जहाँ तक ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों के आय स्तर में वृद्धि का संबंध है, यह एक सफल कार्यक्रम साबित हुआ है।
- इंदिरा आवास योजना ग्रामीण क्षेत्र में आवास सुविधा प्रदान करती है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य देश भर में 20 लाख घर बनाना है जिसमें 65% ग्रामीण क्षेत्रों में हैं।
- योजना के अनुसार, जो लोग अपना घर बनाने में सक्षम नहीं हैं, उनको रियायती दर पर ऋण प्रदान किया जाता है।
- एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम दुनिया में अपनी तरह की सबसे महत्वाकांक्षी योजना है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य गरीबों को रोज़गार प्रदान कर उनके कौशल को विकसित करने के अवसर प्रदान करना है ताकि उनके जीवन स्तर में सुधार हो सके।
- भारत में गरीबी उन्मूलन के लिये सरकार द्वारा शुरू की गई कुछ अन्य योजनाओं में शामिल हैं: राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार कार्यक्रम (NREP), राष्ट्रीय मातृत्व लाभ योजना (NMBS), ग्रामीण श्रम रोज़गार गारंटी कार्यक्रम (RLEGP), राष्ट्रीय पारिवारिक लाभ योजना (NFBS), शहरी गरीबों के लिये स्वरोज़गार कार्यक्रम (SEPUP) आदि।
- उपरोक्त सभी योजनाओं एवं कार्यक्रमों ने गरीबी कम करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
अपेक्षित कदम :
- किसी भी गरीबी उन्मूलन रणनीति का एक आवश्यक तत्त्व घरेलू आय में बड़ी गिरावट को रोकना है।
- राज्य प्रायोजित गरीबी और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को सही सोच के साथ लागू किया जाना चाहिये।
- कई देशों में गरीबी को कम करने के लिये सशर्त नकद हस्तांतरण (CCT) को एक प्रभावी साधन के रूप में प्रस्तावित किया गया है।
- हालाँकि, पूर्ण लाभ पाने के लिये गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण प्रदान करने में सक्षम सामाजिक बुनियादी ढाँचे के निर्माण की आवश्यकता है।
- यूटिलिटी, विद्युतीकरण, आवास, ट्रांसपोर्टेशन सुविधाओं के विकास पर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है।
- भारत में केवल 1,500 किलोमीटर एक्सप्रेस वे है, जबकि चीन और अमेरिका में यह 100 हज़ार किलोमीटर से भी अधिक है। अतः इसे बढ़ाए जाने की ज़रूरत है।
- कृषि उत्पादन पर्याप्त नहीं है। गाँवों में आर्थिक गतिविधियों का अभाव है। इन क्षेत्रों की ओर ध्यान देने की ज़रूरत है। कृषि क्षेत्र में सुधार की ज़रूरत है ताकि मानसून पर निर्भरता कम हो।
- बैंकिंग, क्रेडिट क्षेत्र, सामाजिक सुरक्षा नेटवर्क, उत्पादन और विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा तथा ग्रामीण विकास के क्षेत्र में सुधार की ज़रूरत।
- सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा पर अधिक निवेश किये जाने की ज़रूरत है ताकि मानव उत्पादकता में वृद्धि हो सके। गुणात्मक शिक्षा, कौशल विकास पर ध्यान केंद्रित करने के साथ ही रोज़गार के अवसर, महिलाओं की भागीदारी, बुनियादी ढाँचा तथा सार्वजनिक निवेश पर ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है।
- हमें आर्थिक वृद्धि दर को बढ़ाने की आवश्यकता है। आर्थिक वृद्धि दर जितनी अधिक होगी गरीबी का स्तर उतना ही नीचे चला जाएगा।